सुशोभित

एक महत्त्वपूर्ण प्रश्न का सामना कीजिये :

“अगर बलिदान में आत्मबलिदान की भावना निहित नहीं है तो क्या उसे आध्यात्मिक रूप से वैध माना जा सकता है?”

अब इसका परिप्रेक्ष्य समझिए।

मनुष्यों को ऐसा क्यों लगता है कि वो इतने ‘प्रिविलेज्ड’ हैं कि एक ‘काल्पनिक’ ईश्वर या ख़ुदा- जिसके अस्तित्व का कोई प्रमाण नहीं है- को प्रसन्न करने के लिए वो एक जीवित प्राणी का उसकी मर्ज़ी के खिलाफ़ बलिदान दे सकते हैं?

वहीं क्या वह मनुष्य से उच्चतर शक्तियों- जैसे कि क्लाइमेट, नेचर, कॉसमॉस- के द्वारा उत्पन्न आपदाओं- जैसे सूखा, बाढ़, भीषण गर्मी, उल्कापात- से बड़े पैमाने पर होने वाली जनहानि को किन्हीं अज्ञात मनुष्येतर शक्तियों के द्वारा मनुष्य का बलिदान देने की संज्ञा दे सकता है?

अगर नहीं तो क्यों नहीं?

अगर हाँ, तब क्या मनुष्य इन आपदाओं को आत्मबलिदान के उसी भाव से स्वीकार करेंगे, जैसे उन्होंने प्राणियों के बलिदान का समारोहपूर्वक उत्सव मनाया था और उसके लिए एक-दूसरे को उसकी शुभकामनाएँ दी थीं?

दूसरे शब्दों में, आदमी की जान और जानवर की जान में ऐसा कितना फ़र्क़ है कि करोड़ों जानवरों का एक ही दिन में डेलिब्रैट तरीक़े से क़त्ल बलिदान का उत्सव माना जाए, लेकिन कुछ सौ मनुष्यों की किसी प्राकृतिक आपदा में मृत्यु को त्रासदी समझा जाए?

उस त्रासदी को आत्मबलिदान क्यों नहीं समझा जा सकता?

और अगर उस त्रासदी को आत्मबलिदान समझकर उसका उत्सव नहीं मनाया जा सकता है, तो मनुष्यों को क्या अधिकार है अपने से नीचे मौजूद हीन प्रजातियों का सामूहिक-संहार करके इसे त्योहार की श्रेणी में रखने का?

यह एक आध्यात्मिक स्तर का प्रश्न है, इन अर्थों में कि हत्या करने का अधिकार उसी को है, जो स्वयं अपनी मृत्यु के लिए भी उतने ही निर्द्वंद्व तरीक़े से अपने को प्रस्तुत करता है (श्रीमद्भगवद्गीता) और अगर उसमें अपने या अपने परिजनों या अपने समुदाय के दूसरे मनुष्यों के प्राणों के प्रति आसक्ति है तो किसी मनुष्येतर प्राणी का बलिदान देने का उसका अधिकार भी स्वत: ही समाप्त हो जाता है।

इस पर गम्भीरता से विचार कर ​अपनी टिप्पणियाँ देवें।

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