
सुशोभित
संसार का ऐसा कौन-सा अपराध है, जो केवल नवरात्रि और सावन में अपराध होता है, बाक़ी दिनों में वह जायज़ है?
ताज़ीराते-हिन्द की कौन-सी दफ़ाएँ हैं, जो केवल नवरात्रि और सावन में लागू होती हैं, बाक़ी दिनों में रद्द हो जाती हैं?
क्या आपने किसी को यह कहते हुए सुना कि तुम नवरात्रि में चोरी क्यों कर रहे हो या श्रावण में डकैती क्यों डाल रहे हो, इन दिनों में यह अपराध है।
तो क्या बाक़ी दिनों में चोरी-डकैती अपराध नहीं?
अगर कोई चीज़ ग़लत होती है तो वह सातों दिन, बारहों महीने, चौबीसों घंटे ग़लत होती है। यह नवरात्रि-श्रावण में ग़लत और शेष दिनों में सही का क्या हिसाब है?
हिन्दू धर्म के एक स्वघोषित प्रतिनिधि ने हाल ही में मंच पर जाकर कहा कि क़ानून किसी को कुछ खाने से रोकता नहीं, सबको सबकुछ खाने का अधिकार है, पर नवरात्रि और सावन में मांस दिखाकर हमें मत चिढ़ाओ।



लेकिन ये चिढ़ नवरात्रि और सावन में ही क्यों होती है? दूसरे दिनों में क्यों नहीं? क्या ऐसा मुमकिन है कि कूड़े के ढेर के समीप से गुज़रते समय सड़ांध से तंग आकर नाक पर आपका हाथ केवल नवरात्रि और सावन में ही जाये?
इस तरह का पाखण्डपूर्ण व्यवहार दुनिया के किसी समाज में नहीं होता है कि आप एक ही चीज़ को एक समय ग़लत और दूसरे समय जायज़ मानें।
जिसे आप मांगलिक प्रसंगों में, पवित्र समझे जाने वाले दिनों में न करें, उसे अन्य दिनों में बेहिचक करते रहें? ये पाप की कैसी लचीली व्यवस्था है? कर्मफल क्या पवित्र दिनों में किए पाप पर ही बनते हैं- अन्य दिनों में नहीं? या कुछ ऐसा प्रबंध है कि अन्य दिनों में किए जाने वाले पाप का निपटारा हम नदी में डुबकी लगाकर, भजन करके, दान-पुण्य करके कर सकते हैं, पर पवित्र दिनों में किया जाने वाला पाप महापाप है, जिससे मुक्ति सम्भव नहीं?
क्या इस तरह की सोच रखने वाले समाज में ज़रा भी चेतना हो सकती है? विचार हो सकता है? क्या वह पूरी तरह से दिग्भ्रान्त, अचेत समाज नहीं?
जीवहत्या के साथ जो सबसे बड़ा अन्याय किया जा सकता था, वो यह है कि इसे धार्मिक-भावना से जोड़ दिया गया। जैसे ही आप कहते हैं, मांसाहार से हमारी धार्मिक भावना आहत होती है, इसका तुरंत ही यह आशय निकलता है कि जो आपके धर्म को नहीं मानते, उन्हें वैसा करने की छूट है। जबकि पाप तो पाप है, चाहे जो करे, जब करे, जैसे करे!
भारतीय दंड संहिता की धाराएँ जैसे सब पर समान रूप से लागू होती हैं, वैसे ही जीवहत्या का पाप सबके लिए समान है। क़ानून इसे अपराध नहीं मानता, इससे वह पुण्य-कर्म नहीं बन जाता। क़ानून तो मनुष्यों ने बनाया है और अपने हितों को सोचकर बनाया है।
लेकिन जिसने किसी जीव की देह में प्राण फूंका हो, उसका तो यही विधान रहा होगा कि यह जीव अपना पूरा जीवन जीये, उसकी हत्या न की जाये। तब उसकी हत्या के अपराध से कौन बरी हो सकता है?
फिर दोहराता हूँ- शाकाहार-मांसाहार का कोई सम्बंध धार्मिक-भावना से नहीं है। इसका सम्बंध नैतिक-निष्ठा से है। नवरात्रि के बाद भी चोरी अपराध ही रहेगी।
श्रावण के बाद भी डकैती गुनाह ही कहलायेगी। ‘बुरा न मानो होली है’ के दिन भी बलात्कार अपराध की परिभाषा से मुक्त नहीं हो जाता (‘दामिनी’ फिल्म तो देखी ही होगी), फिर यह कैसे मुमकिन है कि एक निर्दोष जीव की बलात् हत्या को आप केवल पवित्र दिनों में ही पाप समझें?
एक राजनेता जब मंच से बोलता है तो वह अपने वोटबैंक को सम्बोधित करता है। उसका ख़ुद का कोई ईमान-धरम नहीं होता। वह मांसाहार पर आपत्ति भी अपने वोटबैंक को लुभाने के लिए लेता है। लेकिन जीवन का आधार राजनीति नहीं, नीति है।
राजनीति कहती है, नवरात्रि में मांसाहार से हमारी धार्मिक-भावना आहत होती है। नीति कहती है, साल के बारहों महीने, 365 दिन जीवहत्या अगर अपराध है तो है।
पाप पर सर्वसम्मति बना लेने से वह पुण्य नहीं बन जाता। आप जिसे मारकर खाते हैं, वह एक जीवन है, उसकी एक अस्मिता है, आप उसका बलात् हनन नहीं कर सकते।
नवरात्रि का शाकाहार-व्रत साल के 365 दिन चले तो ही पुण्यकर्म है, अन्यथा वह ढोंग से बढ़कर कुछ नहीं!
लेखक : देश के जाने-माने पत्रकार हैं।