सुशोभित

जब लेखक किसी विषय से आविष्ट हो जाता है और उसका मन, बुद्धि, कल्पना, उद्भावना पूरी तरह से उस पर एकाग्र हो जाते हैं, तो इस रचनात्मक-प्रक्रिया से लेखमाला की उत्पत्ति होती है। ये लेखमालाएँ बड़ी भी हो सकती हैं और छोटी भी, दीर्घकालिक भी और अल्पकालिक भी।

कुछ लेखमालाएँ इतनी लम्बी होती हैं कि एक पूरी पुस्तक का रूप ग्रहण कर लेती हैं। जैसे कि महात्मा गांधी पर लिखी पुस्तक ‘गांधी की सुन्दरता’ एक सुदीर्घ लेखमाला की ही उत्पत्ति है जो छह माह तक अनवरत लेखक के भीतर चलती रही थी।

वहीं रजनीश पर लिखी पुस्तक ‘मेरे प्रिय आत्मन्’ डेढ़ वर्षों के अंतराल में कम से कम तीन लम्बी लेखमालाओं के संकलन से बनी है। फ़ुटबॉल पर लिखी पुस्तक ‘मिडफ़ील्ड’ भी तीन से चार महीनों की एकनिष्ठ बैठक का ही परिणाम है।

ऐसी लेखमालाओं के लिए पृथक से संकल्प लेना नहीं होता, चित्त में स्वयमेव ही ऐसी धुन बँध जाती है कि सोते-जागते उस एक विषय के सिवा कुछ और नहीं सूझता। नींद में सपने भी उसी के आते हैं। स्वप्नों में वाक्य उभरते हैं। बहुतेरे लेख तो स्वप्नों में उभरे वाक्यों से निर्मित होते हैं!

जो लेखमालाएँ इतनी लम्बी नहीं चल पातीं कि एक पुस्तक का रूप ले लें, वो स्वयं को किन्हीं पुस्तकों की वृहत्तर परियोजनाओं में समाहित कर लेती हैं।

जैसे, रॉबेर ब्रेसाँ पर लेखमाला जो ‘देखने की तृष्णा’ में सम्मिलित हुई, रिल्के पर लेखमाला जो ‘दूसरी क़लम’ का हिस्सा बनी और पुस्तक को अपना यह शीर्षक भी उसी लेखमाला से मिला, न्यूटन पर लेखमाला जिसने ‘आइंस्टाइन के कान’ में स्थान पाया, मणि कौल पर वर्षों पूर्व लिखी लेखमाला जो समान्तर सिनेमा पर शीघ्र-प्रकाश्य पुस्तक में समाहित हो गई और भोपाल शहर के लैंडस्केप पर लिखी टिप्पणियाँ जो ‘बावरा बटोही’ में समा गईं। ये तमाम मालाएँ पृथक से छोटी पुस्तिकाओं के रूप में प्रकाशित होने की पात्रता रखती हैं।

कई बार ऐसा भी हुआ है कि किसी एक विषय पर महीनों के अध्ययन-अनुशीलन से लेखमाला तो नहीं, लेकिन एक सुदीर्घ निबंध अवश्य उत्पन्न हुआ। जैसे कि काफ़्का, मार्केज़ और जे.एम.कोएट्ज़ी के उपन्यासों पर लिखे गए निबंध जो ‘दूसरी क़लम’ और वेर्नर हरसोग के सिनेमा पर लिखा गया निबंध जो ‘देखने की तृष्णा’ में समाविष्ट है। ये चारों ही निबंध वर्ष 2012 में सबसे पहले ‘सबद’ ब्लॉग पर प्रकाशित हुए थे।

कुछ ऐसी लेखमालाएँ हैं जो अभी तक किसी पुस्तक का हिस्सा नहीं बन पाई हैं और लेखक के मन में दुविधा है कि उन्हें किसी वृहत्तर परियोजना में समाहित करे या उन्हीं पर परिश्रम करते हुए उन्हें पृथक से एक पुस्तक के रूप में तैयार करे। वेदान्त पर लेखमाला ऐसी ही है। वही अवस्था कार्ल मार्क्स और फ़्योदोर दोस्तोयेव्स्की पर लिखी लेखमालाओं की भी हैं। लेखक को इनके बारे में निर्णय करना है। यह उसकी शक्ति, क्षमता, अभिरुचि पर निर्भर है। कुछ ऐसे भी व्यक्तित्व हैं, जिन पर लेखक ने अभी तक क़लम नहीं चलाई, लेकिन उसके मन में यह है कि भविष्य में उसे उन पर काम करना है। जैसे, नेहरू, आम्बेडकर, रबीन्द्रनाथ, विवेकानन्द।

और फिर ऐसे लेख- जो लेखमाला तो नहीं हैं- लेकिन वर्षों की प्रक्रिया में समय-समय पर लिखे जाते रहे और एक दशक के बाद पाया गया कि यह तो एक पूरी पोथी बन गई है। पशु-अधिकारों पर शीघ्र-प्रकाश्य पुस्तक भी ऐसी ही एक प्रलम्बित धुन है!

लेखक : देश के जाने-माने पत्रकार हैं।

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