सुशोभित

आज कार्ल मार्क्स का जन्मदिन है। आज ही के दिन वर्ष 1818 में इस क्रांतचेता मनीषी का जन्म हुआ था। मार्क्स सही मायनों में क्रांतचेता थे, क्योंकि वे क्रांति को अवश्यम्भावी और अनिवार्य समझते थे। कि न केवल क्रांति एक ऐतिहासिक अपरिहार्यता के रूप में होकर रहेगी, बल्कि यह होनी ही चाहिए। अपनी किताब ‘द जर्मन आइडियोलॉजी’ में उन्होंने इसके दो कारण गिनाए थे। पहला, “रूलिंग क्लास को किसी और तरह से हटाया ही नहीं जा सकता!” (“पूँजी से जुड़ा हुआ हृदय बदल नहीं सकता”- मुक्तिबोध), दूसरा, “क्रांति की प्रक्रिया में ही समाज में सदियों से जमा हो चुकी कीचड़ को साफ़ किया जा सकता है!”

मार्क्स ने ‘द जर्मन आइडियोलॉजी’ (1846) अपने अभिन्न मित्र फ्रेडरिक एंगेल्स के साथ मिलकर लिखी थी। पुस्तक का शीर्षक एक पोस्ट-हेगेलियन पूर्वग्रह की ओर संकेत करता है। इसमें आज आइिडयलिज़्म और आइिडयोलॉजी का द्वैत भी देख सकते हैं, जो कि प्रकारान्तर से हेगेल और मार्क्स का द्वैत है। हेगेल जर्मन-आइिडयलिज़्म के पुरोधा थे, मार्क्स जर्मन-आइडियोलॉजी के प्रवर्तक। हेगेल द्वंद्वात्मक संरचनाओं की व्याख्या यथास्थिति की तरह करते थे, मार्क्स उनमें निर्णायक हस्तक्षेप की थ्योरी तलाशते थे!

‘द जर्मन आइडियोलॉजी’ में मार्क्स ने पहली बार ‘ऐतिहासिक-भौतिकवाद’ की सुचिंतित प्रस्तावना रखी थी, जो कि उनका केंद्रीय-विचार है। इस किताब में उन्होंने मनुष्य की गतिविधियों को दो श्रेणियों में बाँटा- ‘प्रोडक्शन’ और ‘इंटरकोर्स’। इंटरकोर्स का मतलब मनुष्य की उन गतिविधियों से था, जो प्रोडक्शन को निर्धारित करती हैं। मार्क्स का कहना था कि इतिहास का आारम्भ ही तब हुआ था, जब मनुष्य ने प्रोडक्शन करना शुरू किया था। शुरू में यह उत्पादन स्वत:स्फूर्त था, लेकिन समय के साथ जब सामाजिक-संरचनाएँ उभरीं तो सत्ता उन लोगों के हाथों में आ गई, जो कि उत्पादन को नियंत्रित करते थे। सामाजिक-सम्बंधों- यानी इंटरकोर्स के रूपों का निर्धारण प्रोडिक्टिव-फ़ोर्सेस के द्वारा किया जाना लगा। इससे समाज में जटिल विरोधाभास उभरे। मार्क्स का स्पष्ट मत था कि इन विरोधाभासों का उन्मूलन केवल और केवल क्रांति के माध्यम से ही किया जा सकता है।

मार्क्स ने बहुत ही वैज्ञानिक रीति से ‘द जर्मन आइडियोलॉजी’ में यह स्थापित किया था कि श्रम का प्राकृतिक विभाजन जब सामाजिक बन जाता है तो इससे वर्गों का उदय होता है। इसी से कालान्तर में निजी सम्पत्ति और राज्यसत्ता जैसी संस्थाएँ उभरती हैं। लार्ज-स्केल इंडस्ट्री जहाँ एक तरफ़ निजी सम्पत्ति का निर्माण करती है, वहीं वह कामगार वर्ग का सर्वहाराकरण भी करती है। उसके अभ्युदय की प्रक्रिया में ही सर्वहारा-क्रांति के बीज निहित हैं- ऐसा कार्ल मार्क्स का स्पष्ट मानना था। इसी विचार से ‘ऐतिहासिक-भौतिकवाद’ और ‘वैज्ञानिक-कम्युनिज़्म’ एक-दूसरे से अभिन्न होकर जुड़ जाते हैं।

जब मार्क्स यह लिख रहे थे (1845), तब वह ‘क्रांतियों का युग’ था। एरिक हॉब्सबॉम ने यूरोप में 1789 से 1848 तक के कालखण्ड को क्रांतियों के युग की तरह ही परिभाषित किया है। ‘द जर्मन आइडियोलॉजी’ के लिखे जाने के तीन साल के भीतर ही समूचे यूरोप में क्रांतियाँ फूट पड़ी थीं। इतिहास संक्रमण के दौर से गुज़र रहा था और साम्राज्यों के बाद राष्ट्र-राज्यों की परिघटना उभर रही थी। तब पदार्थ और चेतना दोनों में ही सातत्य था, जिससे ऐतिहासिक विचारधारा की रूपरेखाएँ सुठोस हो सकती थीं।

लेकिन 20वीं सदी में क्वांटम-भौतिकी ने पदार्थ में अराजकता (‘अनसर्टेन्टी प्रिंसिपल’) के दर्शन किए और पोस्ट-मॉडर्निज़्म का उदय हुआ। भूमण्डलीकरण ने सूचना-प्रौद्योगिकी को जन्म दिया और पोस्ट-ट्रुथ, वर्चुअल-रियल्टी की उत्पत्ति हुई। कंज़्यूमरिज़्म का परचम फहराया। कंज़्यूमरिज़्म की ख़ासियत यह है कि वह हितग्राही और यथास्थितिवादी होता है और क्रांति की प्रक्रिया को असम्भव बनाता है। जाति-व्यवस्था, पूँजी-व्यवस्था में ही जिनके न्यस्त-स्वार्थ हों, वे उन्हें क्यों बदलना चाहेंगे और प्रोडक्शन के साधन उनके हाथ में होने से वे लोकप्रिय संस्कृति का उत्पादन भी यथास्थिति को क़ायम रखने के लिए ही करेंगे। यह अकारण नहीं है कि मार्क्सवदियों ने निरन्तर ‘लोकप्रिय-संस्कृति’ का क्रिटीक रचा है और उसकी मंशा पर प्रश्न उठाए हैं।

समय जितना कठिन होता जाता है, मार्क्सवादी दृष्टिकोण को स्वयं को उतना ही निखारकर प्रासंगिक बनाना होता है और हर युग का एक नया क्रिटीक रचना होता है। यही ऐतिहासिक-भौतिकवाद की बुनियादी प्रतिज्ञा भी है, जिसकी रूपरेखा ‘द जर्मन आइडियोलॉजी’ में प्रस्तुत हुई है। क्या ही विडम्बना है कि ‘द जर्मन आइडियोलॉजी’ कार्ल मार्क्स के जीवनकाल में प्रकाशित नहीं हो सकी थी, लेकिन मार्क्स को इस पर कोई क्षोभ न था। वे इस किताब को ‘सेल्फ़-क्लैरिफ़िकेशन’ का उपकरण समझते थे। उनका मानना था कि ‘द जर्मन आइडियोलॉजी’ के माध्यम से उन्होंने अपने ऐतिहासिक-दृष्टिकोण की ठीक तरह से मरम्मत कर ली है और अगर वह किताब नहीं लिखी जाती तो आगे चलकर ‘कैपिटल’ भी नहीं लिखी जा सकती थी।

सामाजिक-संरचनाएँ मनुष्य की स्वतंत्रता को बाधित करती हैं- यह उदारवादी दृष्टि है।

सामाजिक-संरचनाएँ मनुष्य का शोषण करती हैं- यह मार्क्सवादी दृष्टि है।

और सामाजिक-संरचनाएँ मनुष्य को अनैतिक बनाती हैं- यह गांधीवादी दृष्टि है।

भारत में गांधी और मार्क्स के मेल की कोशिशें बहुत हुई हैं, राजनीति के क्षेत्र में विशेषकर लोहियावादियों (‘कुजात-गांधीवादी!’) ने यह किया। साहित्य के क्षेत्र में प्रेमचंद का आदर्शोन्मुख-यथार्थवाद भी गांधी और मार्क्स से प्रेरणा पाता है।

मैं विशेषकर भारत के परिप्रेक्ष्य में- उदारवादी स्वतंत्रता, मार्क्सवादी समानता और गांधीवादी नैतिकता के सुमेल में ही मनुष्य का भविष्य देखता हूँ।

कॉमरेड कार्ल मार्क्स को उनकी 206वीं सालगिरह पर लाल सलाम!

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