सुशोभित
बच्चों में जानवरों के लिए सहज ही एक लगाव होता है। बच्चे किसी ख़रगोश को देखते हैं तो ये नहीं सोचते कि इसका क़त्ल करना है। वो उसको बाँहों में समेट लेते हैं। बकरी के किसी बच्चे को वो दुलारते हैं। गाय के बछड़े को लाड़ करते हैं। बच्चों को लगता है कि जानवरों की दुनिया लगभग उनके जैसी है।
बच्चे जानवरों से, ख़ासकर पालतू जानवरों से बहुत जल्द दोस्ती कर बैठते हैं, उनसे दिल लगा लेते हैं।
दोनों की ‘ज़ात’ एक जैसी होती है!
तब इन्हीं बच्चों की आँखों के सामने, उनके रोने-बिलखने को नज़र-अंदाज़ करके, घर में पले एक जानवर का क़त्ल कर देना- इससे बड़ा गुनाह क्या होगा?
इन्हीं बच्चों को ये तालीम देना कि अपने नन्हें दोस्तों का क़त्ल न केवल जायज़ बल्कि ज़रूरी भी है, इससे बढ़कर कुफ़्र क्या होगा?
यह बच्चों की रूह को पनपने से पहले ही रौंद देना है। उनके इंसान बनने की उम्मीदों को कुचल देना है। यह धर्म नहीं, अधर्म है!
जो जानवर आपके घर में बेफ़िक्री से सोया, दाना-पानी खाया-पिया, जो आपके बच्चों के साथ खेला, और जिसने मन ही मन सोचा कि यह मेरा घर है, यहाँ मैं महफ़ूज़ हूँ, ये लोग मेरे दोस्त हैं- उसी की गर्दन पर छुरा चला देना, इससे बढ़कर बेवफ़ाई क्या होगी? दग़ाबाज़ी क्या होगी?
इससे बड़ा भरोसे का क़त्ल क्या होगा? हमदर्दी इससे बुरी मौत क्या मरेगी?
इससे तो भला वो जंगल था, जिसमें क़ातिल, क़ातिल का ही मुखौटा पहनकर झपटता था, दोस्त का नहीं!
क़िस्सा है, और कुलजमा क़िस्सा ही है कि हज़रत इब्राहिम ने तै किया था अपनी सबसे प्यारी और क़ीमती चीज़ को अल्लाह के लिए क़ुर्बान कर देंगे। औलाद से प्यारा और अज़ीज़ भला कौन होता है? तब मक़्क़ा के क़रीब मीना पहाड़ पर वो किताबों में बयान करिश्मा हुआ था कि जब हज़रत इब्राहिम ने आँखों पर पट्टी बाँधकर बेटे इस्माइल की गर्दन पर छुरी चलाई तो अल्लाह मियाँ ने बेटे को एक दुम्बे में बदल दिया।
बेटे की जान की क़ीमत थी, दुम्बे की जान की भला क्या क़ीमत हो सकती थी!
अफ़साना यह भी है कि बेटे को हलाक़ करने ले जाने से पहले उसकी इजाज़त ली गई थी, लेकिन दुम्बे को क़त्ल करने से पहले उसकी इजाज़त नहीं ली गई।
जानवर का जीना क्या और मरना क्या, उसकी क्या इजाज़त लेनी? उसकी ज़िंदगी तो हमने अपने यहाँ गिरवी रखी हुई है।
लेकिन क्या होता अगर क़ुर्बानी बेटे की ही होती, दुम्बे की नहीं? क्या तब भी इस रिवायत को आज तलक जारी रखा जाता, परनालों में अपने बच्चों का ख़ून बहाया जाता?
मज़हब हमेशा ऐसे शॉर्टकट खोज निकालता है, जिससे साँप भी मर जाए और लाठी भी न टूटे! मज़हब हमेशा बकरे और दुम्बे और गायें खोज निकालता है। औलादें बच जाती हैं, उनके घरेलू दोस्त हलाक़ हो जाते हैं।
क़ुर्बानी का वो दिन ईदुज्जुहा कहलाया है, जिसके मुख़ालिफ़ मैं ये तक़रीर दे रहा हूँ! वो रोज़ आज तलक, हर साल मनाया जाता है! और यक़ीन जानिए, उसमें अपनी सबसे क़ीमती और अज़ीज़ चीज़ की क़ुर्बानी नहीं दी जाती है। बाज़ दफ़े तो एक रोज़ पहले बाज़ार से ख़रीदकर लाए जानवर को ज़िब्ह कर दिया जाता है। सुबह की क़ुर्बानी दोपहर की दावत बन जाती है। एहसास होता है कि ख़ुदा की आड़ में पेट की पूजा का यह शैतानी त्योहार था। चटोरी ज़बान की ख़िदमत की जा रही थी!
इस तमाम क़त्लो-ग़ारत में बुनियादी रूप से कुछ इतना ग़लत है कि इंतेहा नहीं!
ख़ुदा होता तो पूछता कि तुमने मेरे मासूम बच्चों के साथ यह सलूक क्यों किया? मैंने ये धरती अकेले तुम्हारे लिए नहीं बनाई थी, जानवर भी इसमें तुम जितने ही शरीक़ थे।
लेकिन- काश! वैसा कोई ख़ुदा होता!
मेरे पास कहने को कोई लफ़्ज़ नहीं हैं, और मुबारक तो हरगिज़ नहीं है। मैं मुबारक नहीं कह सकता। इतना ही कहूँगा कि मासूम बच्चों के क़त्ले-आम की इस वहशत भरी तारीख़ पर हम सभी को बहुत-बहुत लानतें और तोहमतें… हम सबके चेहरों पर तमाम क़ाएनात की कालिखें… मासूमों के ख़ूँ से रंगीं इबारतें!