दयानंद राय
राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर ने संस्कृति के चार अध्याय लिखी थी। वे संस्कृति के प्रकांड अध्येता और विचारक थे, इसलिए आराम से ऐसी मोटी किताब लिख डाली और पंडित जवाहर लाल नेहरू ने उसकी तारीफ भी की और प्रस्तावना भी लिखी। मैं चमचागिरी के चार अध्याय लिखना चाहता हूं।

पढ़ा-लिखा अनपढ़ हूं इसलिए विषय चुनने और लिखने में औकात के साथ अपनी अनपढ़ता का भी ध्यान रखना पड़ता है। किसी मूर्ख व्यक्ति ने मुझसे कहा था कि मैं चमचागिरी के चार अध्याय में से एक अध्याय का शीर्षक चमचे कभी वफादार नहीं हो सकते लिखूं।

मुझे अक्सर लगता रहा कि मैं थोड़ा समझदार हूं इसलिए मैंने उस शख्स की बात पर कान नहीं दिया और अपने मन से एक अध्याय लिखा जिसका नाम था चमचे वफादार दिखते हैं। यह शीर्षक पढ़कर एक व्यक्ति ने कहा कि चमचे वफादार दिखते हैं मतलब वफादार नहीं होते।

मैंने कहा कि आपकी बात आंशिक रूप से सही है। चमचे तभी तक वफादार होते हैं और पालतू रहते हैं जब तक उनका मालिक ताकतवर और मलाईदार पद पर रहता है। जैसे ही उनका मालिक पदमुक्त होता है चमचे भी अपनी वफादारी से मुक्त और दगाबाजी से युक्त हो जाते हैं। कृश्नचंदर एक बड़े लेखक थे और उन्होंने एक गधे की आत्मकथा लिखी थी।

उनसे प्रेरणा लेकर मैं एक चमचे की आत्मकथा लिखना चाहता हूं। जाहिर है अब मुझे चमचागिरी के चार अध्याय के साथ एक चमचे की आत्मकथा भी लिखनी होगी। या दोनों को मर्ज करना होगा क्योंकि मैं जानता कम हूं और चाहता बहुत कुछ हूं।

किताब लिखने के संबंध में चमचों और चमचागिरी का इतिहास जानने के लिए मैंने बहुत दिनों तक निठल्ला चिंतन किया है और इस निष्कर्ष पर पहुंचा कि जैसे गधे बेमौसम रेंकते रहते हैं, वैसे ही चमचे फेंकते रहते हैं।

चमचों की एक और खासियत यह होती है कि जैसे कुत्ता अपने मालिक को देखकर दुम हिलाता है, चमचे राग दरबारी गाते हैं और उसका सुर और ताल वह अवसर देखकर बदल लेते हैं।

उनकी एक और खासियत ये होती है कि वे पदानुकूल वफादार होते हैं यानि जब तक उनका मालिक पद पर रहता है वे उसका स्तुति गान करते हैं और जैसे ही वह पदमुक्त हुआ वे देश, काल और समय के अनुरुप अपना मालिक बदल लेते हैं। जैसे अंगुलिमाल को लोगों की हत्याएं करते वक्त कोई पछतावा नहीं होता था वैसे ही इन्हें रॉकेट से भी तेज गति से मालिक बदलने में कोई अफसोस नहीं होता।

चमचों में एक और कला यह होती है कि ये गिरगिट से भी तेज गति से रंग बदलने में सक्षम होते हैं।

ये रात को दिन कह सकते हैं और इनका मालिक कहे तो दिन को रात कहने में भी इन्हें कोई संकोच नहीं होता। ये हिज मास्टर्स वाइस यानि एचएमवी में बोलते हैं और इनकी अपनी कोई आवाज नहीं होती। जैसा कि मरे लोगों की होती हैं इनकी अंतरात्मा भी मरी होती है पर जीवित जैसी दिखती है।

जैसे झारखंड में झाड़-झंखाड़ बहुतायत में पाये जाते हैं वैसे चमचे भी बहुतायत में पाये जाते हैं और किसिम-किसिम के होते हैं। वे इतने किसिम के होते हैं कि इनका वर्गीकरण आवर्त सारणी की तरह करना बहुत टेढ़ा काम है। डार्विन ने विकास का सिद्धांत दिया और उसमें प्रजाति की बात भी की है।

मैंने चमचों की प्रजाति ढूंढने के लिए बहुत मेहनत की पर कामयाबी नहीं मिली। एक सज्जन ने जो चमचों पर अपने शोध के लिए ख्यात हैं मुझे बताया कि चमचों की प्रजाति ढूंढने के चक्कर में समय सर्फ नहीं करना चाहिए क्योंकि यह रेगिस्तान में सुई ढूंढने के समान है।

थक-हार कर मैंने चमचागिरी के संबंध में सोचना बंद कर दिया है पर अभी भी शोधरत हूं। चमचागिरी और उठाईगिरी में कोई खास अंतर नहीं है।

चमचे अपने मालिक का उठा कर खाते हैं और उठाईगिरे जहां-तहां से उठा कर खाते हैं। हालांकि उठाईगिरी चमचागिरी से बेहतर है क्योंकि उनका एक जमीर होता है।

चमचे इस संज्ञा से मुक्त होते हैं। चमचागिरी के चार अध्याय का यह मेरा अधूरा सिनोप्सिस है। इसे पूरा करने की जिम्मेवारी मैंने ली है।

किताब बाद में लिखी जायेगी, अभी आप प्रस्तावना पर अपने सुझाव दे सकते हैं।

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