सुशोभित
आरोप सच्चा हो तो चुभता है और मनगढ़ंत हो तो ‘मनोरंजन’ करता है। नियति का लेखा कुछ ऐसा रहा कि मेरे हिस्से ‘मनोरंजक आरोप’ ही ज़्यादा आए हैं!
एक आरोप वर्षों से मुझ पर लगाया जा रहा है और आरोप लगाने वाले कोई साधारण ट्रोल्स नहीं, हिन्दी के प्रसिद्ध और पुरस्कृत लेखक, युवा कवि, प्रकाशक आदि हैं। आरोप यह है कि जब मध्यप्रदेश में कांग्रेस की सरकार आई (दिसम्बर, 2018) तो इन पंक्तियों का लेखक ‘रातोंरात’ गांधीवादी बन गया!
मेरी जिज्ञासा यह है कि भला कोई ‘रातोंरात’ गांधीवादी कैसे बन सकता है? और अगर बन भी जाए तो महात्मा गांधी पर एक बहुप्रशंसित पुस्तक कैसे लिख सकता है? रज़ा पुस्तकमाला से महात्मा गांधी पर पुस्तकों की एक शृंखला प्रकाशित हुई है। उस शृंखला के सम्पादक श्री पीयूष दईया ने व्यक्तिगत चर्चा में मुझसे कहा था कि गांधीजी पर लिखी तुम्हारी पुस्तक में एक ताज़गी है, नई दृष्टि है। ऐसी ताज़गी ‘रातोंरात’ कैसे आ सकती है?
दूसरा प्रश्न यह है कि मध्यप्रदेश में कांग्रेस की सरकार बनने से गांधीजी पर लिखने से मुझे क्या लाभ हो सकता था? क्या मुख्यमंत्री मेरा ब्लॉग पढ़ते थे? मुख्यमंत्री तो दूर, मुझे तो मेरे मोहल्ले वाले ही नहीं जानते। मेरे पड़ोसी को नहीं पता कि मैं लिखता हूँ। क्या कांग्रेस सरकार में गांधीजी पर लिखने से मुझे सरकारी विभागों में कोई पद दिया गया, किसी परियोजना की जिम्मेदारी सौंपी गई, कोई फ़ेलोशिप आदि मिली? या मैं मुफ्त ही ‘रातोंरात’ गांधीवादी बन गया था?
मज़े की बात यह है कि मध्यप्रदेश की कांग्रेस सरकार कोई डेढ़ साल ही चल पाई, मार्च 2020 में वह सरकार गिर गई। तथ्य यह भी है कि महात्मा गांधी पर मेरी पुस्तक अक्टूबर 2020 में जब प्रकाशित होकर आई, तब मध्यप्रदेश में भारतीय जनता पार्टी की सरकार थी, केंद्र में तो थी ही। क़ायदे से लेखक को कांग्रेस-राज जाने के बाद ‘गोडसेवादी’ बन जाना चाहिए था। लेकिन वह तो आज 4 वर्ष उपरान्त भी गांधीवादी है और नियमित महात्मा गांधी पर लिखता है। इससे क्या राजनैतिक या साहित्यिक लाभ हो सकता है? हिन्दी में मुख्यधारा के बड़े प्रकाशक तो मुझे छापते नहीं। बड़े लेखक मेरी पुस्तकों का ब्लर्ब लिखते नहीं। पुरस्कार मुझे मिलते नहीं।
पुरस्कारों से याद आया। एक बार दिल्ली से मुझे एक वरिष्ठ लेखिका का फ़ोन आया कि “सुशोभित, तुम्हारे लिए एक अच्छी ख़बर है। मैं एक अवॉर्ड की ज्यूरी में हूँ और मैंने तुम्हें पुरस्कार देने का मन बना लिया है। मेरी बात कोई टालेगा नहीं!” सुनकर मुझे संतोष हुआ। पुरस्कार की घोषणा हुई तो पाया वह किसी और को दिया गया था। उन्हीं लेखिका ने फिर खेद के स्वर में मैसेज किया कि “मैंने पूरी कोशिश की, लेकिन तुम्हारा नाम सुनते ही ज्यूरी के एक अन्य सदस्य (हिन्दी के एक प्रसिद्ध राजनैतिक-इतिहासकार) अड़ गए और कहने लगे कि मेरे होते इस व्यक्ति को पुरस्कार नहीं दिया जाएगा। उन्होंने वीटो किया और अपने पसंदीदा को पुरस्कार दिलवाया।”
यह गुटबाज़ी, यह खेमेबाज़ी, यह अपनी पसंद के लोगों को पुरस्कार देना, उन्हें फ़ेलोशिप देना, उनकी किताबें छपवाना, उनकी भूमिकाएँ-रिव्यू लिखना- यह सब भ्रष्टाचार नहीं है तो और क्या है?
हिन्दी साहित्य की अंदरूनी दुनिया झूठ, प्रपंच, भितरघात, कुंठा, ईर्ष्या, दुर्भावना और द्वेष से भरी हुई है। हिन्दी के लेखक किन्हीं राजनैतिक दलों के कार्यकर्ताओं की तरह व्यवहार करते हैं। फ़र्क़ इतना ही है कि राजनैतिक दलों के कार्यकर्ता खुलकर राजनीति करते हैं, हिन्दी के लेखक साहित्य की आड़ में सियासत करते हैं!
जबकि पाठक को अपने शब्दों से एक सीमा तक ही प्रभावित किया जा सकता है, उसका सम्मान एक सीमा तक ही लच्छेदार वाक्यों से जीता जा सकता है। पाठक का सच्चा सम्मान मिलता है एक उच्च नैतिक मानदण्ड स्थापित करने से, आत्मत्याग करने से, अपने उजले चरित्र का उदाहरण सामने रखने से। ओछी हरकतों से तो उलटे पाठकों का साहित्य से मोहभंग होता है। वो सोचते हैं कि जब लेखक ही ऐसी सस्ती हरकतें करेंगे तो उनके साहित्य का क्या मोल होगा? साहित्य की यह हानि मुझे मंज़ूर नहीं। इसे मैं एक व्यक्तिगत क्षति समझता हूँ।
कितने दु:ख की बात है कि इन पंक्तियों के लेखक ने नवरात्रि पर्व पर पशुबलि के विरोध में चार लेख लिखे, बौद्धों के मांसाहार, विवेकानंद के मांसाहार के विरोध में लिखा, लेकिन हिन्दी के लेखकों ने प्रवाद केवल ईदुज्जुहा पर लिखे लेख पर किया, मानों वे कहना चाह रहे हों, चाहे जिसके बारे में जो बोलो, इस्लाम की शान में ग़ुस्ताख़ी हम बर्दाश्त नहीं करेंगे। ये किसी व्यक्ति, वर्ग या समुदाय के सामने झुकते-झुकते लेट जाने वाले, रेंगने वाले हिन्दी के रीढ़हीन लेखक समाज को क्या दिशा देंगे, जब इनके स्वयं के ही विचारों का कोई नैतिक, न्यायपूर्ण और सत्यनिष्ठ आधार नहीं? इन निकम्मे मठाधीशों पर धिक्कार है!