
सुशोभित
जब अदालत में किसी क़ातिल पर मुक़दमा चलाया जाता है तो बहस इस बारे में की जाती है कि उसने क़त्ल किया है या नहीं, इस पर नहीं कि क़त्ल करना गुनाह है या नहीं
क़त्ल करना गुनाह है, इस पर पहले ही सर्वसम्मति बना ली गई है।



क़ातिल भी इससे राज़ी है। वह भी जानता और मानता है कि क़त्ल करना गुनाह है, पर अपने को बचाने के लिए भरसक कोशिशें करता है।
वकील करता है, झूठी दलीलें देता है, सबूतों के साथ छेड़छाड़ करता है। वह जेल में नहीं सड़ना चाहता या फाँसी के तख़्ते पर नहीं चढ़ना चाहता, इसके लिए वो तमाम जतन करता है।
लेकिन अदालत में वो एक बार भी भूल से ये नहीं कहता कि जज साहब, बाक़ी बातें बाद में, पहले ये बताओ ये किसने तय किया कि क़त्ल करना बुरी बात है? वह भी जानता और मानता है कि क़त्ल करना बुरी बात है और वह इससे सहमत है।
लेकिन सवाल है किसका क़त्ल? आदमी का।
और जानवर का क़त्ल? वह बुरी बात नहीं है। क्यों बुरी बात नहीं है? इसका कोई जवाब नहीं है, किसी के पास नहीं है। मैं पूछता हूँ, अगर आदमी का क़त्ल गुनाह है तो जानवर का क़त्ल गुनाह क्यों नहीं है? क्या फ़र्क़ है आदमी के क़त्ल और जानवर के क़त्ल में? और इतनी बुद्धिमान मनुष्यजाति जो चाँद पर जा चुकी है, इस सवाल का कोई जवाब खोज नहीं पाई है, क्योंकि उसने ये सवाल पूछा ही नहीं है। उसने मान लिया है कि जानवर का क़त्ल जायज़ है।
पर क्यों?
एक ऐसी दुनिया की कल्पना करें, जिसमें क़त्ल जायज़ हो। ज़ाहिर है, तब कोई अदालत न होगी, पुलिस न होगी, क़ानून न होगा। कोई भी किसी को भी मार सकता है। न केवल मार सकता है, बड़ी ढिठाई से इसके बारे में सार्वजनिक रूप से बात भी कर सकता है। इसे अपना अधिकार बता सकता है, अपनी पसंद बता सकता है और सब उससे सहमत होंगे। क्योंकि क़त्ल बुरा है, यह लोगों के दिमाग़ में अभी डाला नहीं गया है।
पर इससे क़त्ल अच्छा नहीं हो जाता।
सब लोग मिलकर अगर सर्वसम्मति से बदी को बदी मानने से इनकार कर दें, तो इससे वह नेकी नहीं बन जाती।
माँसभक्षी ऐसा क़ातिल है, जो नीच तो है ही, बेशर्म और ढीठ भी है। जाहिल तो है ही, बदकार भी है। वह न केवल क़त्ल कर रहा है, बल्कि क़त्ल का मुज़ाहिरा भी कर रहा है, उसे अपना हक़ बता रहा है, कोई इस पर सवाल पूछे तो उलटे उससे भिड़ रहा है। शर्म को वह बेच खाया है। और अकल-समझ उसमें दो कौड़ी की नहीं है।
मनुष्यजाति का सबसे निम्नतम उदाहरण है- माँसभक्षी। दूसरे शब्दों में, दुनिया के 90 प्रतिशत मनुष्य नीचता के तलघर में पड़े सड़ रहे हैं।
आदमी के मामले में अदालत इस पर बहस नहीं करती कि क़त्ल अच्छा है या बुरा, इस पर बहस करती है कि क़त्ल किया गया था या नहीं। लेकिन जानवरों के मामले में तो अदालत बैठी तक नहीं है। इस पर अभी बहस तक नहीं चल रही है कि क़त्ल अच्छा है या बुरा। सबने मिलकर मान लिया है कि क़त्ल अच्छा है। सोचिये, कितना बड़ा अंधकार होगा, और कितनी महान हताशा!
सुधा मूर्ति ने कहा, मैं बाहर जाती हूँ तो अपना भोजन घर से लेकर जाती हूँ, क्या पता किस रेस्तराँ में कहाँ माँस पकता हो, वो उसी बर्तन में मेरा भी खाना पका दें। माँसभक्षी को बुरा लगा। क्यों? ज़मैटो ने प्योर वेज फ़्लीट बनाया, माँसभक्षी को बुरा लगा। क्यों? इस माँसभक्षी को मासूमों का क़त्ल करके चैन नहीं है, उसको इस पर ऐतराज़ भी लेना है कि शाकाहारी हमसे अलग-थलग क्यों रहना चाहते हैं?
तो भाई, नीच आदमी के साथ कौन घुलना-मिलना चाहेगा? उसकी थाली से कौन खाना चाहेगा? क्या आप किसी रेलगाड़ी में ऐसी सीट पर बैठना चाहेंगे, जिसमें समीप ही कोई हत्यारा या बलात्कारी या डकैत बैठा हो?
माँसभक्षी को नीचता करते शर्म नहीं आ रही है, कोई उसकी नीचता से ख़ुद को अलग कर लेना चाहे तो उसको इस पर आपत्ति है। रे माँसभक्षी, इतना ही बुरा लग रहा है तो नीच काम बंद कर दे, सभ्य-समाज में तेरा स्वागत होगा। समस्या क्या है? जो कर्म करे चण्डाल का, उस पर तो लोग थूकेंगे ही।
माँसभक्षी के ज़ेहन के तलघर में बहुत गहरे तक यह रोप देना कि वह अपराधी है, घृणित है, त्याज्य है और असभ्य है- मेरे जीवन का मक़सद है। इस विषय पर मैंने इतना लिखा है और आगे भी इतना लिखूँगा और इतनी अकाट्य दलीलों, तर्कों, जिरहों के साथ लिखूँगा कि माँसभक्षी मेरा नाम सुनते ही शर्म में डूब जायेगा। उसके अंदर शर्म पैदा करना मेरा मक़सद है।
छोटे बच्चों की हत्या करके खा जाने वालो- तुम पर लानत है, और धिक्कार है! इस वाक्य को पढ़ो। फिर हज़ार बार पढ़ो। और फिर हज़ार बार दोहराओ!
लेखक : देश के जाने-माने पत्रकार हैं।