
आशुतोष दुबे
साइकिल और पिता की स्मृतियाँ आपस में गुँथी हुई हैं। मुझे अब भी अपने पुराने घर का वह बड़ा दरवाज़ा दिखाई देता है और उसमें अपनी साइकिल से प्रवेश करते पिताजी।



साइकिलें तब आज जैसी तकलादू और तन्वंगी नहीं होती थीं। वे हैंडल से कैरियर तक मजबूत होती थीं और वैसी ही दिखाई देती थीं। बहुत पहले तो उनमें लाइट भी होती थी जो अक्सर खराब हो जाती थी, लेकिन उनकी बड़ी और मजबूत घण्टी वैसी ही बनी रहती थी। बहुत के भी पहले, सुना है, साइकिल का लाइसेंस भी होता था और नम्बर प्लेट भी।
कुल मिला कर साइकिल शान की सवारी थी । फिल्मों में हीरो हीरोइन साइकिल चलाते हुए पिकनिक पर जाते थे और अक्सर कोई गाना गाया करते थे। पचास और साठ के दशक में साइकिल यूँ एक तरह की आती हुई आधुनिकता को व्यक्त कर रही थी। याद कीजिए, नूतन या सायरा बानो और सुनील दत्त या देव आनन्द को जो रफ़ी और लता की आवाज़ों में गुनगुनाते हुए अपने पिकनिकी सफ़र का मज़ा ले रहे हैं।
पिता जी ने सिर्फ़ यही एक वाहन चलाया।
अपने जीवनकाल में न जाने कितने किलोमीटर उन्होंने साइकिल से नापे होंगे। साइकिल ऐसा वाहन है जो मनुष्य के श्रम के ईंधन से चलता है। पिताजी को यह श्रम हमेशा रास आया। यह भी कह सकते हैं कि यही उनकी जीवन शैली थी। उनकी गन्ध पसीने की गन्ध थी।
दुनिया जब स्कूटर पर सवार हो रही थी, वे साइकिल पर कायम रहे। साइकिल कभी उनकी शर्मिंदगी नहीं बनी। साइकिल से ऊपर उन्होंने कुछ चाहा ही नहीं।
आज साइकिल मजदूरों का वाहन है जो उसके कैरियर पर कपड़े की थैली में रखे टिफिन को फँसा कर सुबह सुबह काम पर निकल जाते हैं या वर्जिश की ख़ातिर फ़ैशनेबल लोगों का जो हैंडल पर अदा से झुके हुए फ़िटनेस की सड़क पर उसे चलाते हैं।
लगभग पचहत्तर साल की उम्र तक उन्होंने साइकिल चलाई होगी। उसे हम घर के बाहर ही एक खम्भे से चेन से बांधकर रखते रहे।
एक दिन हमने सुबह उठ कर देखा: चेन तो पड़ी है, साइकिल चोरी हो गई है।
हमें इसी साइकिल पर बैठा कर वे अनन्त चतुर्दशी का जुलूस दिखाने ले गए थे। बस छूट जाने पर स्कूल ले गए थे। सुबह की परीक्षा के लिए हम इसी पर बैठकर उत्तर याद करते हुए गए थे। इसी पर हमने बड़े भाइयों से साइकिल चलाना सीखी थी। एक रात गणेशोत्सव के दौरान जब मैंने सड़क पर दिखाए जाने वाले सिनेमा के लिए जिद की थी, तो इसी पर मुझे बिठा कर वे वह जगह ढूँढते रहे थे जो कहीं मिली नहीं और मुझे लौट आना पड़ा। कुत्ते के काट लेने पर इसी साइकिल पर बिठा कर रोज़ पेट में इंजेक्शन लगवाने के लिए वे मुझे लाल अस्पताल ले जाते रहे ।
उस बड़े से दरवाज़े के भीतर जब वे अपनी साइकिल से आते हुए नज़र आते , हम लोग दूर से देख कर भाग कर अपनी अपनी किताबें खोल कर बैठ जाते। रात को सीढ़ियों से कुछ ऊपर उठा कर साइकिल पहली मंज़िल पर चढ़ाई जाती।
वे हम बच्चों को एक कविता भी सुनाते थे जो हम सब भाई बहन ने यथासंभव याद करते हुए पुनर्जीवित की है :
बिन बत्ती की देख साइकिल
पुलिस मैन चिल्लाया
ठहर कहाँ जाता है बच कर
देख अभी मैं आया
साइकिल वाला उससे बोला
बच बच अरे अनाड़ी
वरना दब कर मर जाएगा
बिना ब्रेक की गाड़ी
हम इस कविता का ख़ूब मज़ा लेते ,इस बारे में सोचे बगैर कि साइकिल से कभी कोई दब कर नहीं मरता। साइकिल एक निहायत शरीफ़ वाहन है। टकरा कर अपना हैंडिल टेढ़ा कर लेगी, मगर अगले को कुचलेगी नहीं।
हमारे एक पड़ोसी थे जिनके पास साइकिल में हवा भरने का पम्प भी था। किस शानोशौकत से उनके बच्चे उस पम्प को किसी ‘प्राइज़्ड पज़ेशन’ की तरह उसका दुनिया जहान में प्रदर्शन करते हुए साइकिल में हवा भरते थे ! आज उस सबको याद करते हुए हँसी आ जाती है।
छोटे छोटे गर्व थे, जिनकी सुई से बहुत से अभावों की चादर सी ली जाती थी। थोड़ा , बहुत की तरह दिखता और दिखाया जाता।
साइकिल की चोरी एक सदमा थी, एक ऐसे समय में भी जब साइकिल के अच्छे दिन इतिहास में जा चुके थे। पर उन्होंने इसका कोई रंज नहीं किया। कम से कम दिखाया कुछ नहीं। वे हर स्थिति में एक जैसे बने रहते थे। उन्होंने कभी अपने नुकसानों का ब्यौरा नहीं दिया, कभी अपनी शिकायतों का पिटारा नहीं खोला, उनकी निराशाएँ, उनके तनाव हमें कभी पता ही नहीं चले। वे हमारे लिए मजबूती और धैर्य के पर्याय थे। उनकी उपस्थिति भर से, या फ़ोन पर बहुत दूर से उनकी आवाज़ भर सुन लेने से हमारी उद्विग्नता और तनाव काफूर हो जाते थे।
ऐसे हमारे पिताजी ने साइकिल की उस क्षति को बहुत गहनता से अनुभव तो किया होगा, क्योंकि वह उनका वाहन ही नहीं, उनकी स्वाधीनता भी थी, पर इस परिस्थिति को भी उन्होंने लगभग तभी स्वीकार कर लिया।
फ़िटनेस वाली फ़ैशनेबल साइकिल अब घर में है, जिसे शौकिया चलाया जाता है। पहले वाली साइकिल भी कोई बहुत आरामदेह नहीं थी, लेकिन वह असली साइकिल लगती थी। उसके साथ हम उसके समय में चलते थे। वह हमारे लिए एक प्राचीनता की समकालीनता थी।
उसके जाते ही समय दो टुकड़ों में बंट गया। साइकिल समय और साइकिल के बाद का समय, जब पिता जी या तो पैदल चले या हमारे साथ ही कहीं गए।
फिर धीरे धीरे तो सब छूट जाता है। गति भी, दिशा भी, संतुलन भी, पैडल पर पाँव का दबाव भी : पाँव, जिनमें रक्त का प्रवाह होता है, जिससे जीवन का पहिया घूमता है- जब तक घूम सके, बढ़ सके, कहीं पहुँच सके।
उसके बाद साइकिल को गिरना है। हवा में पहिए घूमते रहते हैं।
हम साइकिल सवार को ढूंढते रह जाते हैं। कहाँ गया वह?
आसमान, धरती, पानी, आग और हवा : जानते ये सब हैं, बताता कोई नहीं।