सुशोभित
तुर्क-देश के विश्व-प्रसिद्ध फिल्मकार नूरी बिल्गे ज़ेलान की यह दूसरी फिल्म मैंने देखी है। पहली फिल्म ‘विंटर स्लीप’ थी, जो गए साल देखी। तीन-तीन घंटे लम्बी इन दोनों फिल्मों को देख चुकने के बाद मुझे यह ख़याल आया कि नूरी ने फिल्म के रूप में एक उपन्यास की विधा का समावेश करने में सफलता पा ली है। उपन्यास में ‘टेक्स्ट’ होता है, जबकि फिल्म एक ‘विज़ुअल-टेपेस्ट्री’ होती है। ये दो भिन्न अनुशासन हैं और एक-दूसरे के क्षेत्र में समय-समय पर अतिक्रमण करने के बावजूद एक-दूसरे से पृथक रहते हैं। लेकिन नूरी बिल्गे महान रूसी कथाकारों- तॉल्सतॉय, दोस्तोयेव्स्की, चेख़ोव- से बहुत प्रभावित हैं और उनकी फिल्मों में इनकी झलकें जब-तब दिखलाई देती रहती हैं।
मिसाल के तौर पर दोस्तोयेव्स्की के उपन्यासों में लम्बी-लम्बी चर्चाओं के माध्यम से कथानक का रूप उभरता है। दोस्तोयेव्स्की के यहाँ दृश्य बदलता है तो एक नया संवाद शुरू हो जाता है। कई दफ़े ये संवाद बीसियों पन्नों तक चलते रहते हैं। नूरी बिल्गे की फिल्में भी इसी तरह से संवादों से भरी होती हैं। एक केंद्रीय पात्र की अपने आसपास के विभिन्न लोगों से बातचीत के माध्यम से वे उसके अंदरूनी-आकाश को उभारते हैं। उनका ध्यान कहानी सुनाने पर उतना नहीं रहता, जितना कि कथासत्य को आलोकित करने में। यह एक उम्दा उपन्यासकार की युक्ति है। नूरी इसे सफलतापूर्वक सिनेमा में ले आए हैं।
‘द वाइल्ड पीयर ट्री’ एक युवा लेखक की कहानी है, जो अपना पहला उपन्यास प्रकाशित करवाने के लिए संघर्ष कर रहा है। वह इसे ‘ऑटो-फिक्शन’ और ‘मेटा नॉवल’ कहता है। यानी उसमें कथासूत्र एकरैखिक नहीं है और टेक्स्ट समय-समय पर अपने बारे में पाठक को सचेत करता है। मानो टेक्स्ट अपने में एक अर्थबहुल ऑर्गेनिक-वस्तु हो। यही ‘मेटा-फिक्शन’ की परिभाषा भी है। नायक के अपने पिता से जटिल सम्बंध हैं। पिता को वह जीवन में नाकाम व्यक्ति समझता है और उसे डर है कि वह भी अपने पिता की तरह विफल सिद्ध होगा। पिता-पुत्रों के बीच इस तरह के परस्पर-तनाव अकसर रहते हैं। फिल्म के अंतिम दृश्य में पिता से नायक का ‘री-कंसिलिएशन’ होता है। पिता उसका नॉवल पढ़कर सराहते हैं, वह अपने पिता की एक कुएं की खुदाई में मदद करता है। पिता और पुत्र के बीच का पीढ़ीगत-संघर्ष वहाँ समाप्त हो जाता है। एक और महान रूसी उपन्यासकार तुर्गेनेव की यहाँ पर याद आती है।
नूरी बिल्गे अपनी फिल्मों में लम्बे-लम्बे डायलॉग्स के माध्यम से कई थीम्स को प्रकट करते हैं। इन्हीं में से एक थीम रिलीजन का वस्तुनिष्ठ-सत्य से टकराव है, जो इस फिल्म में एक लम्बे सीक्वेंस के माध्यम से सामने आई, जिसमें दो इमाम नायक के साथ चलते हुए रिलीजन के महत्त्व पर बातें करते हैं। अगर रिलीजन नहीं होगा तो लोग अनैतिक हो जावेंगे- यह चिंता भी नूरी ने दोस्तोयेव्स्की के उपन्यास ‘द ब्रदर्स करमाज़ोव’ से ही पाई है।
नूरी की फिल्मों के नायक अहंमन्य, सिनिकल, रूखे और तिक्त होते हैं। बुद्धि के अतिरेक ने एक मनुज के रूप में उनकी जड़ों को सुखा डाला होता है। इस फिल्म का केंद्रीय-मोटिफ़ एक जंगली दरख़्त भी उसके नायक की तरह रूखा है। तुर्क-देश का एक लज़ीज़ प्रोविंशियल लैंडस्केप नूरी की इस फिल्म में प्रकाशित हुआ है। इसका पेस बहुत मेडिटेटिव है। मैं धीरे-धीरे फिल्में देखता हूँ, इसलिए 188 मिनट की यह फिल्म देखने में मुझे तीन रातों का समय लगा। और फिल्म ख़त्म करने के बाद मुझे अहसास हुआ, जैसे मैंने 19वीं सदी का कोई बहुत ही ख़ूबसूरत उपन्यास पढ़कर पूरा किया हो, 20वीं सदी के जल्दबाज़ और चतुर पोस्ट-मॉर्डन फिक्शन में वह बात कहाँ?
तब दोस्तोयेव्स्की में अपनी प्रेरणाएँ तलाशने वाले नूरी मुझे अपने बंधु की तरह मालूम होने लगे, 19वीं सदी को पुकारने वाली पुकार सरीखे।